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1.7.13

ज़िन्दगी, रिश्ते, प्यार और समाज की कहानियाँ दुहराते फिल्मों के गीतकार

पत्रिका  समसामयिक सृजन से प्रकाशित

एक कवि के लिए विचरने के लिए सारा आकाश रहता है। वह अपने लिए चुन सकता है कि उसे किस दिशा में अपनी कलम चलानी है। वह किसी भी रंग के शब्द अपनी कूची से रच सकता है, उसकी कविता उसका निजी साम्राज्य है। सोचिये, अगर शब्दों के इस सम्राट से कहा जाए कि जनाब, विषय हम आपको देंगें, आप बस उसी पर लिखिए, वैसे तो ये एक प्रेम गीत है पर फिर भी आपको इसमें कुछ हट कर लिखना होगा, मगर ध्यान रहे शब्द सरल होने चाहिए, जिसे कोई भी आम व्यक्ति आसानी से समझ सके, और रुकिए, हम एक धुन भी आपको देंगें, उसी धुन पर आपको शब्द बिठाने हैं, तो कितनी मुश्किल हो जाए कविराज के लिए। दोस्तों, हिन्दी सिनेमा में गीत लिखने की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही है। यही वजह है कि अमूमन सभी बड़े साहित्यिक कवि (कुछ अपवादों को छोड़कर) फ़िल्मी गीत-लेखन से दूर ही रहे। ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रीय संगीतकार फिल्म संगीतकारों से सदा अलग-थलग रहे या फिर जैसे रागों की घुमावदार गहराइयों को गले से नापने वाले नामी शास्त्रीय गायकों ने पार्श्वगायन में उतरने से हमेशा परहेज रखा।

बोलना शुरू करते ही हिन्दी फिल्मों ने गाना भी सीख लिया था। तकनीकी रूप से पश्चिम से प्रेरित होने के बावजूद हमारे आरम्भिक फिल्मकारों ने उनकी सीधी नक़ल नहीं की, वरन हमारी अपनी कहानियों को परदे पर उतारना शुरू किया, और यह भी कमाल देखिये कि बीते सौ वर्षों में (सवाक सिनेमा के ८० वर्षों में) किसी भी फिल्मकार ने बिना गीतों के कहानियों की कल्पना नहीं की, हाँ ऊँगली पर गिने जाने लायक कुछ प्रयोगात्मक फ़िल्में अवश्य हैं जिसमें कोई गीत नहीं था। ठीक वैसे ही जैसे पाश्चात्य फिल्मों में गिने-चुने संगीत-अंश होते हैं। गीत-संगीत हमारी तहजीब, हमारे संस्कार हमारी बोल-चाल में इस कदर समाये हैं कि हम अपनी फिल्मों की तामीर इनके बिना मुक्कमल नहीं मान पाते। पहली बोलती फिल्म आलम-आरा के दे दे खुदा के नाम पर... से लेकर आज तक जाने कितने गीत बने। कभी इन गीतों ने हमें रुलाया तो कभी जख्मों पर मरहम रखा। कभी झूमने की वजह दी, तो कभी इश्क की गहराईयों को समझने में मदद दी, कभी तन्हाईयों में गुनगुनाने की फितरत दी, तो कभी महफ़िल में छा जाने की कैफियत.... फ़िल्मी गीतों ने किस-किस तरह से हमारा साथ नहीं दिया। इन गीतों में शब्द पिरोने वाले भी जाने कितने गीतकार आये और चले गए, मगर रोज ही जाने-अनजाने उनके शब्दों में हम ज़िन्दगी को और करीब से महसूस करते ही रहते हैं, तभी तो ये फ़िल्मी गीत हमारे रोजमर्रा के जीवन का एक अहम हिस्सा थे, हैं और रहेंगें।

आरम्भिक दौर में जब फिल्म के अभिनेताअभिनेत्री खुद ही अपना गायन करते थे और पार्श्वगायन की भी शुरुआत नहीं हुई थी, उस दौर के गीतकारों का अलग से नाम नहीं दिया जाता था। सम्भवतः फिल्म के संवाद लेखक या फिर खुद अभिनेता ही इन गीतों को लिख दिया करते थे। पार्श्वगायन की शुरुआत फिल्म धूप छांव से हुई जिसके गीतकार थे पण्डित सुदर्शन। ४० के दशक तक आते-आते फिल्मों में गीत संगीत अनिवार्य हो चला था, और केदार शर्मा, और डी.एन. मधोक के साथ-साथ मुंशी आरज़ू लखनवी और कवि प्रदीप प्रमुख गीतकारों के रूप में उभरने लगे। केदार शर्मा तो १९३६ की फिल्म देवदास के लिए बालम आये बसों मेरे मन में... और दुःख के दिन अब बीतत नाहीं... जैसे गीतों से पहले ही स्थापित हो चुके थे। ४० के दशक में भी उन्होंने फिल्म निर्देशन के साथ-साथ बहुत सी फिल्मों में गीत लिखे। १९४१ में आई चित्रलेखा में उनके गीत सैयाँ साँवरे भये बाँवरे..., सुन सुन नीलकमल मुस्काए... और तू जो बड़े भगवान बने... खासे लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के संगीतकार थे उस्ताद झण्डे खाँ साहब। १९५० की फिल्म बावरे नैन के खयालों में किसी के..., और तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं... जैसे गीतों को भला कौन भूल सकता है। मुबारक बेगम का गाया कभी तन्हाईयों में यूँ... (हमारी याद आएगी, १९६१) की कशिश, केदार शर्मा के फिल्म संगीत के योगदान की याद हमेशा दिलाती रहेगी। फिल्म रतन के अखियाँ मिलाके जिया भरमा के... गीत से चर्चा में आये डी.एन. मधोक ने १९५१ की संगीतमयी फिल्म तराना में बोल पपीहे बोल... (लता मंगेशकर, अनिल बिस्वास), मोसे रूठ गयो... (लता, अनिल बिस्वास), और जली जो शाख... (तलत, अनिल बिस्वास) जैसे गीत भी लिखे।

१९५० में अनिल दा के साथ फिल्म बेक़सूर में मतवाले नैनों वाले की... और आई भोर सुहानी आई... जैसे गीत लिखने वाले मुंशी आरज़ू लखनवी साहब इससे पहले स्ट्रीट सिंगर में आर.सी. बोराल (१९३८), दुश्मन और डॉक्टर में पंकज मालिक, प्यार की मंजिल में हुस्नलाल भगतराम और सिपहिया में सी. रामचन्द्र के साथ भी सफल जोड़ीदार साबित हुए थे। कवि प्रदीप की बात करें तो कह सकते हैं कि वो अपने दौर के सबसे क्रान्तिकारी गीतकारों में से एक रहे। दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है... (किस्मत, १९४३) से पूरे देश को झकझोरने वाले इस कवि-गीतकार ने लगभग १७०० गीत लिखे। चल चल रे नौजवान... (बन्धन, १९४०), आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ..., दे दी हमें आजादी... (जागृति, १९५४) जैसे जाने कितने गीत थे प्रदीप के लिखे, जिन्हें देश का बच्चा-बच्चा गर्व से गाता फिरता था। आज भी ये गीत रोंगटे खड़े कर देते हैं। चीन के साथ हुए युद्ध के बाद वीर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए जब उन्होंने ए मेरे वतन के लोगों... गीत लिखा तो पत्थर से पत्थर दिल भी पसीज कर रह गया। इस गीत को सुनकर तत्कालीन प्रधान मंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु की आँखें भी छलक उठी थीं और उन्होंने प्रदीप को राष्ट्रीय कवि की उपाधि दे डाली थी। ऐसा नहीं कि दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित कवि प्रदीप ने केवल देशभक्ति गीत ही लिखे हों, उनके लिखे कुछ अन्य गीतों की बानगी देखिये सूनी पड़ी रे सितार... (कंगन), धीरे धीरे आ रे बादल... (किस्मत), ऊपर गगन विशाल... (मशाल), कितना बदल गया इंसान... (नास्तिक), चलो चले माँ... (जागृति), ओ दिलदार बोलो एक बार... (स्कूल मास्टर), सूरज रे जलते रहना... (हरिश्चन्द्र तारामती) आदि। कवि प्रदीप के सरल शब्द जनमानस की चेतना में कुछ यूँ समा जाते थे जैसे उन्हीं के सूक्ष्म गहरे भावों का हिस्सा हों सदा से।

४० के दशक के आरम्भ में कुछ और गीतकार प्रमुख धारा में आये, जैसे पण्डित भूषण, तनवीर नकवी, कमर जलालाबादी, पण्डित नरेन्द्र शर्मा, भरत व्यास, जोश मलिहाबादी, अख्तर-उल-ईमान, पण्डित मुखराम शर्मा और नक्शब। इनमें से भरत व्यास, कमर जलालाबादी और पण्डित नरेन्द्र शर्मा सबसे अधिक लोकप्रिय साबित हुए। तूफ़ान और दीया, जिद्दी, परिणीता, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, और गूँज उठी शहनाई जैसी सफल और सुरीले संगीत से सजी फिल्मों के लिए गीत रचने वाले भरत व्यास कुछ समय बाद पौराणिक और धार्मिक फिल्मों तक सीमित होकर रह गए। ए मालिक तेरे बन्दे हम... और ये कौन चित्रकार है... जैसे ढेरों अमर गीतों के लिखने वाले इस गीतकार ने रंगीला राजस्थान नाम की एक फिल्म का निर्देशन भी किया था। कमर जलालाबादी ने हुस्नलाल भगतराम के साथ सफल गीतकार और संगीतकार की जोड़ी बनाई। खूबसूरत युगल गीतों- सुन मेरे सजना... (आँसू, १९५३) से लेकर हलके-फुल्के अंदाज़ के गीतों- आज पहली तारीख है... (पहली तारीख, १९५४), से संजीदा अंदाज़ के गीत- दोनों ने किया था प्यार मगर... (महुवा), और चुलबुले नटखट मिजाज़ के गीत- आईये मेहरबान..., मेरा नाम चिन् चिन् चूँ... (हावड़ा ब्रिज) तक कमर साहब ने अपनी कलम के जौहर जम कर दिखलाये। दिल किसलिए रोता है, प्यार की दुनिया में ऐसा ही होता है... (मुलाकात, गायिका नसीम बानू, १९४७) जैसे यादगार गीतों-ग़ज़लों को रचने वाले कमर ने गुलाम हैदर से लेकर नए दौर के उत्तम सिंह जैसे संगीतकारों की धुनों पर भी शब्द बुने और कामयाब भी हुए। पण्डित नरेन्द्र शर्मा भी साहित्यिक दुनिया से होते हुए भी फ़िल्मी गीतों में बेहद सफल साबित हुए। तुम्हें बाँधने के लिए मेरे पास क्या है, मेरा प्रेम है..., संगीतकार सुधीर फडके के लिए उनके इस गीत को स्वर मिला लता मंगेशकर का, जिसके बाद मधुर गीतों की जैसे एक रसधारा सी फूट निकली। ज्योति कलश छलके... और सत्यम शिवम सुन्दरम... जैसे अमर गीतों को रचकर पण्डित जी सिने-संगीत-प्रेमियों के ह्रदय में सदा के लिए स्थापित हो गए।

आजादी से पहले ही इप्टा से जुड़े बहुत से गीतकार एक नयी ऊर्जा लेकर फिल्म जगत में दाखिल हुए, जिनमें प्रेम धवन, अली सरदार जाफरी, विश्वामित्र आदिल, मनमोहन आनन्द, जिया सरहदी और मजरूह सुल्तानपुरी प्रमुख थे। १९४७ में मिली आजादी की खुशी और तत्पश्चात हुए बँटवारे का दर्द खुल कर बिखरा, इन गीतकारों की कलम से, क्योंकि अब ब्रिटिश प्रतिबन्ध का काला साया सर से उठा चुका था। भाषा का रूप-रंग भी अब कुछ बदल गया था। जहाँ पहले के गीतों में अवधी, पूरबी और भोजपुरी शब्दों की अधिकता थी वहीँ अब आधुनिक उर्दू और हिन्दी की खड़ी बोली का प्रयोग जम कर होने लगा। १९४५ से १९४७ तक आते-आते भाषा का शहरीकरण हो चुका था, जो अब एक मिश्रित रूप था, सरल बोलचाल वाले हिन्दी और उर्दू के शब्दों का। इस  बदलाव में मजरूह सुल्तानपुरी और प्रेम धवन ही लम्बे समय तक कमान थामे खड़े रह सके। वहीँ कवि गीतकार गोपाल सिंह 'नेपाली' ने इस दौर में अपने दिलकश गीतों से एक अल्हदा ही पहचान बनायीं.

प्रेम धवन ने १९४८ की फिल्म जिद्दी से अपना सफर शुरू किया। ये वही फिल्म थी जिसमें किशोर कुमार ने पहली बार देव आनन्द के लिए गया था मरने की दुआएँ क्यों माँगूँ...। उन्होंने तराना (अनिल बिस्वास), मिस बॉम्बे (हंसराज बहल), जागते रहो और काबुलीवाला (सलिल चौधरी), दस लाख, और एक फूल दो माली (रवि), अपलम चपलम (चित्रगुप्त), और हम हिन्दुस्तानी (उषा खन्ना) के लिए कई अच्छे  गीत लिखे। उनकी कलम से- छोडो कल की बातें... (हम हिन्दुस्तानी), ए मेरे प्यारे वतन... (काबुलीवाला) जैसे गीत निकले. मनोज कुमार ने उन्हें गीतकारसंगीतकार की दोहरी भूमिका में आजमाया और १९६५ की फिल्म शहीद में मेरा रंग दे बसन्ती चोला..., जोगी हम तो लुट गए..., ए वतन ए वतन... आदि गीत उनके सबसे यादगार गीतों में शामिल था। वहीँ दूसरी तरफ मजरूह ने नौशाद से लेकर ए.आर. रहमान तक के लिए गीत लिखे। बरसों-बरस उनकी कलम से गीतों के झरने बहते रहे। फिल्म शाहजहाँ के जब दिल ही टूट गया... से लेकर पुकार के सुनता है मेरा खुदा... तक जाने कितने गीत हैं दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित इस गीतकार के हिस्से में, जिसने बरसों-बरस श्रोताओं को झूमने, गुनगुनाने को मजबूर किये रखा। पंचम के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी (तीसरी मंजिल, कारवाँ, प्यार का मौसम, हम किसी से कम नहीं, यादों की बारात, ज़माने को दिखाना है आदि), मगर उन्हें एकमात्र फिल्मफेयर पुरस्कार मिला, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के साथ, फिल्म दोस्ती के अमर गीत चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे... के लिए। चौकलेटी चेहरे वाले आमिर खान के जज़्बात उनके शब्दों में युवा दिलों पर छा गए (याद करें पापा कहते हैं...- फिल्म क़यामत से क़यामत तक)। उम्र की तीसरी पायदान पर आकर भी उनकी कलम से पहला नशा जैसा गीत निकला जो प्रेम की पहली-पहली अनुभूति को व्यक्त करता शायद सबसे उत्कृष्ट गीत है।

१९४७ के आते-आते नौशाद देश के पहले स्टार संगीतकार के रूप में उभरने लगे थे। उनके साथ सबसे अधिक जोड़ी जमी, शकील बदायूनीं की। नौशाद के साथ उनकी सफल यात्रा शुरू हुई फिल्म दर्द से (अफसाना लिख रही हूँ... उमा देवी) और बैजू बावरा (१९५२), मदर इण्डिया (१९५७), मुग़ल-ए-आज़म (१९६०), गंगा जमुना (१९६१), मेरे महबूब (१९६३) तक सफलता की एक अमर कहानी लिखती चली गयी। नौशाद के इतर उनकी जोड़ी रवि के साथ (चौदहवीं का चाँद, घराना), रोशन (नूरजहाँ) और हेमन्त कुमार (साहिब बीबी और गुलाम) में भी खूब जमी। उनके शब्दों में मिटटी की महक थी, एक भीनी-भीनी सरलता थी जो सीधे दिल में उतर जाती थी। १९४७-४८ के दौरान ही उभरकर आए राजेन्द्र कृष्ण। देश के चहेते महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि देते हुए राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था सुनो सुनो ए दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी... (संगीत हुस्नलाल भगतराम), जिसे सुनकर पूरा देश रोया था। एक गीतकार होने के साथ-साथ राजेन्द्र एक सफल पटकथा लेखक भी थे और १९९० तक सक्रिय रहे। अनारकली, नागिन, भाई भाई, अदालत, जैसी ढेरो फिल्मों में उनके यादगार गीत रहे। धीरे से आजा री अँखियन में निंदिया... (अलबेला), उनको ये शिकायत है..., और यूँ हसरतों के दाग... (अदालत), ये जिन्दगी उसी की है..., जाग दर्द-ए-इश्क जाग... (अनारकली), तुम्हीं मेरे मन्दिर... (खानदान), आँसू समझ के क्यों मुझे... (छाया), जैसे गीत क्या श्रोता कभी भूल पायेंगें?

१९४९ में शोमैन राजकपूर ने दो बड़े गीतकार दिए फिल्म इण्डस्ट्री को शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के रूप में। शैलेन्द्र निःसन्देह इण्डस्ट्री को मिले सर्वश्रेष्ठ गीतकारों में से एक थे। एक अच्छे कवि होने के बावजूद वह कविता और फ़िल्मी गीतों के बीच के फर्क को बखूबी समझते थे। प्रेम की गहरी अनुभूति हो, या सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष, उनके शब्द सुनने वालों को कभी भी पराये नहीं लगे। जितनी गहराई तक उनके गीत श्रोताओं के दिलों को छू पाए, उसकी मिसाल बहुत कम ही देखने को मिलती है। आवारा हूँ..., मेरा जूता है जापानी..., सब कुछ सीखा हमने..., सजन रे झूठ मत बोलो..., काँटों से खींच के ये आँचल..., ओ जाने वाले हो सके तो..., मौसम बीता जाए..., ओ सजना बरखा बहार आई..., टूटे हुए ख़्वाबों ने... खोया खोया चाँद... ये मेरा दीवानापन है... जैसे ढेरों अमर गीत निकले, इस महान गीतकार की कलम से। फणीश्वर नाथ रेणु की एक लघु कथा को तीसरी कसम के रूप में परदे पर साकार कर शैलेन्द्र ने सिने-जगत को एक अनमोल कृति दी है। जहाँ शैलेन्द्र ने सभी आमो-खास के दिल में अपनी जगह बनायीं वहीँ हसरत जयपुरी प्रेम गीतों के सबसे सफल गीतकार माने गए। जिया बेकरार है..., छोड़ गए बालम... (बरसात), जिन्दगी एक सफर है सुहाना... (अंदाज़), पंख होते तो उड़ आती... (सेहरा), तेरे ख़यालों में हम... (गीत गाया पत्थरों ने), दुनिया बनाने वाले... (तीसरी कसम), ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर... (संगम) आदि उनके कुछ लोकप्रिय गीतों में से हैं।

१९४८ के आसपास फिल्म जगत को मिला एक नायाब शायर का साथ भी, जो एक मुक्कमल गीतकार भी साबित हुए। सिने-संगीत के शौक़ीन कितने लाजवाब गीतों से वंचित रह जाते अगर साहिर लुधियानवी नहीं होते। साहिर शायद एकमात्र ऐसे गीतकार थे जो संगीतकार की दी हुई धुन पर न लिखकर उन्हें अपने शब्दों पर धुन बनाने को कहते थे। उनके चुने हुए शब्द शायराना होते हुए भी सुनने में सहज और धुनों में पिरोने के लिए सटीक होते थे, यही वजह थी कि उनकी इस माँग को लेकर किसी संगीतकार को कोई तकलीफ नहीं होती थी। साहिर देश के पहले स्टार गीतकार साबित हुए, जिनके  व्यक्तिगत जीवन की प्रेम कहानियाँ भी चर्चा का विषय बनी। उन्हें अपने शब्दों पर खासा विश्वास था और वो हर गीत के लिए मेंहनताने के रूप में उन दिनों की सबसे महँगी गायिका लता मंगेशकर से एक रूपया अधिक लिया करते थे। रवि, बर्मन दा, रोशन और खय्याम के साथ मिलकर उन्होंने एक से बढकर अमर गीत रचे। खुद को पल दो पल का शायर... कहने वाले साहिर ने लीक से हटकर समाज को आईना दिखाते हुए ऐसे-ऐसे गीत लिखे जिनकी चोट आज भी दिलों में टीस उठा जाती है। कुछ बानगी देखिये संसार से भागे फिरते हो... (चित्रलेखा), ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..., जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं... (प्यासा), वो सुबह कभी तो आएगी... (फिर सुबह होगी) आदि। उनके शब्द संवेदनाओं को झकझोरते थे, पीड़ा को अभिव्यक्ति देते थे और जीवन को गहराई से समझने में कारगर थे। १९७१ में साहिर को पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

१९४९ तक आते-आते फ़िल्मी गीतों में और अधिक सरलता आ गयी, हलके-फुल्के चुलबुले गीत भी श्रोताओं को लुभाने लगे। शाम ढले खिडकी तले... (राजेन्द्र कृष्ण), जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी..., माना जनाब ने पुकारा नहीं... (मजरूह)। अब गीतों में आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा और फ़िल्मी गीतों की एक नयी भाषा प्रचलित होने लगी। प्यासा के अमर गीतों को रचने के बाद आपसी मतभेदों के चलते साहिर ने बर्मन दा के साथ काम करने से इनकार कर दिया। तब गुरुदत्त ने एक और शायर गीतकार को फिल्म कागज़ के फूल में मौका दिया, ये थे कैफी आज़मी। बिछड़े सभी बारी बारी..., वक्त ने किया... जैसे गीत रचने वाले कैफी ने हीर राँझा के रूप में एक कवितामयी फिल्म ही लिख डाली, जो आज भी एक मिसाल है। कैफी ने चुनिन्दा फिल्मों में ही काम किया मगर जो भी किया बेहतरीन किया। गरम हवा, हकीकत, कोहरा, अनुपमा, पाकीज़ा, हँसते जख्म, अर्थ, और रज़िया सुलतान जैसी फिल्मों में उनके गीत भुलाये नहीं भूलेंगें। फिल्म नसीम में उन्होंने एक यादगार भूमिका भी निभाई थी। ६० का दशक आते-आते फ़िल्में संगीत प्रधान हो चली थी। कुछ फ़िल्में तो लचर कहानियों के बावजूद आज भी सिर्फ अपने गीत-संगीत के लिए याद रखी जाती हैं। संगीत की दुनिया में पंचम, एल.पी. (लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल), और कल्याणजी आनन्दजी पहले से स्थापित शंकर जयकिशन, रोशन और नौशाद को कड़ी टक्कर दे रहे थे। ऐसे में फिल्म जगत को मिला, मिनटों में धुन पर सटीक गीत रचने वाला, आम आदमी की जुबाँ बोलने वाला एक गीतकार, आनन्द बक्शी के रूप में। फिल्म मिलन में उन्होंने लिखा सावन का महीना... और उसके बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। बक्शी साहब ने कई हज़ार गीत लिखे और दशकों तक सिने-दुनिया में छाये रहे। फिल्मों में सबसे लम्बी पारी खेलने वाले संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल की सफलता में उनके सरल गीतों का बहुत बड़ा योगदान रहा। उनपर चालू और सस्ते गीत लिखने के आरोप भी लगे, मगर सच्चे संगीत के कद्रदान कैसे भूल सकते हैं कि उन्होंने चिंगारी कोई भडके..., आदमी मुसाफिर है..., मगर रो पड़े..., सोलह बरस की..., सावन के झूले पड़े..., हम तो चले परदेस... जिन्दगी के सफर में जो गुजर जाते हैं..., मेरे नैना सावन भादो... जैसे गीत भी लिखे थे। तूने काजल लगाया दिन में रात हो गयी... जैसी पक्तियों से आम आदमी की संवेदनाओं को भी गुदगुदा देते थे और चोली के पीछे... जैसे तथाकथित अश्लील गीतों को लिखकर सुर्खियाँ भी बटोर लेते थे।

जहाँ बक्शी साहब के शब्दों मे सरलता और हल्कापन था वहीँ कुछ अनूठे शब्द-युग्म और ताजगी भरे बिम्बों के साथ मैदान में उतरे गुलज़ार। यहाँ सोच का विस्तार तो था मगर एक अजब सी सरलता भी थी। इतने सहज रूप में कविता को गीतों में मिलाने का काम सिर्फ और सिर्फ गुलज़ार ही कर सकते थे। गुलज़ार प्यार को प्यार न कहकर आँखों की महकती खुशबू..., कहते थे और फिर रोज रोज उन्हीं आँखों तले... एक सुरीला ख्वाब बुनते रहे। कभी ज़िन्दगी से रूबरू होकर (तुझसे नाराज़ नहीं) तो कभी पाँव तले जन्नत चला कर (छैय्याँ छैयाँ) गुलज़ार श्रोताओं के लिए सात रंग के सपने बुनते रहे। पंचम के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी, और नए दौर में भी हृदयनाथ मंगेशकर, विशाल भारद्वाज और ए.आर. रहमान के लिए गुलज़ार ने नायाब गीत लिखे। जय हो के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार भी मिला, और इस प्रतिष्टित पुरस्कार को पाने वाले वह इकलौते भारतीय गीतकार बने। गुलज़ार ने बहुत सी सफल फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया। गुलज़ार आज दशकों बाद भी उतने ही लोकप्रिय है। एक जीवन्त किंवदन्ती।

८० के दशक में फिल्मों में मार-धाड़ की प्रमुखता हो गयी और संगीत का माधुर्य कहीं खोने लगा। फिर भी मजरूह, आनन्द बक्शी, और गुलज़ार के साथ-साथ गुलशन बावरा (तेरी दुनिया से..., यारी है ईमान मेरा..., मेरे देश की धरती..., जीवन के हर मोड़ पे..., चाँदी की दीवार न तोड़ी... आदि), इन्दीवर (कसमे वादे प्यार वफ़ा..., चन्दन सा बदन..., मधुबन खुशबू देता है..., ज़िन्दगी का सफर..., दिल ऐसा किसी ने मेरा तोडा..., समझौता ग़मों से कर लो... आदि), और अनजान (आपके हसीन रुख पे..., आपकी इनायतें आपके करम..., ओ साथी रे..., दिल तो है दिल..., जिसका कोई नहीं..., खाईके पान बनारस वाला..., छूकर मेरे मन को... आदि) श्रोताओं को मधुर गीतों की सौगात देते रहे। कुछ नाम ऐसे भी रहे जिनका योगदान संख्यात्मक लिहाज बेशक कम रहा मगर गुणात्मक रूप में उन्हें भूल पाना असम्भव ही होगा जैसे अमृता प्रीतम (कादम्बरी, गीत अम्बर की एक पाक सुराही...), राजकवि इन्द्रजीत सिंह तुलसी (शोर, गीत जीवन चलने का नाम..., सोने का चबूतरा...), शहरयार (उमराव जान, गमन), जिया सरहदी (अनोखा प्यार), आह सीतापुरी (मूर्ति, संगीत नौशाद), साजन देहलवी (ठोकर, संगीत श्यामजी घनशयामजी, गीत मैं ढूँढता हूँ जिनको...), सन्तोष आनन्द (प्रेम रोग, रोटी कपडा और मकान, गीत भँवरे ने खिलाया फूल..., मैं न भूलूँगा..., और नहीं बस और नहीं...),  नक्श लायलपुरी (दर्द), खुमार बाराबंकवी  (रुखसाना), योगेश (आनन्द, रजनीगन्धा, छोटी सी बात), एस.एच. बिहारी (सावन की घटा, भाई भाई, प्यार झुकता नहीं), सावन कुमार टाक (हवस, सौतन, गीत तेरी गलियों में न रखेंगें कदम..., ज़िन्दगी प्यार का गीत है...), प्रकाश मेहरा (जंजीर, शराबी, लावारिस, गीत- मंजिलें अपनी जगह हैं...’, और इस दिल में क्या रखा है...), देव कोहली (मैंने प्यार किया), जाँनिसार अख्तर (सुशीला, गीत- गम की अँधेरी रात...), राजा मेंहदी अली खान (मेरा साया, वो कौन थी, अनपढ़), रामावतार त्यागी (जिंदगी और तूफ़ान, गीत एक हसरत थी...), बसन्त देव (उत्सव, गीत साँझ ढले गगन तले..., मन क्यों बहका...), सुदर्शन फाकिर (दूरियाँ, गीत ज़िन्दगी मेरे घर आना...), असद भोपाली (पारसमणि, एक सपेरा एक लुटेरा), निदा फाजली (विजय, इस रात की सुबह नहीं, सुर), नीरज (गैम्बलर, तेरे मेरे सपने, शर्मीली, प्रेम पुजारी, नयी उम्र की नयी फसल, चा चा चा), एम.जी. हशमत (कोरा कागज, तपस्या), बहजाद लखनवी (आग, गीत ज़िन्दा हूँ इस तरह...), किशोर कुमार (नील गगन की छाँव में), हसन कमाल (बाजार) आदि। गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन.का उल्लेख भी विशेष रूप से जरूरी है। इस बेहद सफल संगीतकार ने खुद ढेरों गीत भी लिखे, जिनका कोई सानी नहीं, जैसे अँधेरे में जो बैठे हैं..., फकीरा चल चला चल..., सजना है मुझे..., घुँघरू की तरह..., गीत गाता चल..., राधा का भी श्याम हो तो..., गोरी तेरा गाँव..., कहाँ से आये बदरा... और फिल्म राम तेरी गंगा मैली में उनके लिखे अधिकतर गीत यादों में सदा बसे रहेंगें। नीरज और योगेश, जिनका जिक्र हमने ऊपर किया गया है, उन्होंने फ़िल्मी गीतों में बेहद नए प्रयोग भी किये। नीरज का फूलों के रंग से... और दिल आज शायर है... फ़िल्मी गीतों की आम मुखड़ा’, अन्तरा परम्परा से काफी अलग थे, जबकि उनका लिखा स्वप्न झरे फूल से... तो पूरी तरह एक कविता ही थी। इसी तरह योगेश ने न जाने क्यों... में एक अलग पैटर्न रचा गीत का। गुलज़ार ने भी मेरा कुछ सामान... काव्यात्मक अंदाज़ में लिखकर श्रोताओं को चौंकाया था।

नब्बे के दशक के आरम्भ में संगीत की दुनिया में एक नयी बयार लेकर आये, नदीम श्रवण, आनन्द मिलिन्द (चित्रगुप्त के जुड़वा बेटे), जतिन ललित, इस्माईल दरबार, अनु मालिक, और ए.आर. रहमान. ऐसे में गीतकार के रूप में उभरे समीर (जो गीतकार अनजान के बेटे हैं), जावेद अख्तर, और महबूब। जावेद अख्तर जो कि पहले सलीम के साथ जोडीदार थे, पटकथा लेखक के रूप में, उन्हें यश चोपड़ा ने गीतकार बनने का न्योता दे डाला जिसे आरम्भिक हिचक के बाद उन्होंने स्वीकार कर लिया और इण्डस्ट्री को मिला एक और उत्कृष्ट गीतकार। ८० के दशक में स्क्रीन लेखन से एंग्री यंगमैन को रचने वाले जावेद ने पंचम के साथ मिलकर १९४२ ए लव स्टोरी के संगीत को अमर कर दिया। ये पंचम की अन्तिम फिल्म साबित हुई। सो गया ये जहाँ... (तेज़ाब), हम न समझे थे... (गर्दिश), सच मेरे यार हैं... (सागर), तुमको देखा तो ये ख़याल आया... (साथ साथ), और देखा एक ख्वाब... (सिलसिला) जैसे गीत लिखकर ९० के दशक में छाये रहे तो नयी सदी में ए.आर. रहमान के लिए लगान, स्वदेश, और सपने, अनु मालिक के साथ बोर्डर और एल ओ सी, और शंकर एहसान लॉय के लिए दिल चाहता है लक बाई चांस, और कल हो न हो जैसी फिल्मों में गीत लिखकर आज भी सक्रिय हैं।

महबूब ने ए.आर. रहमान के लिए बॉम्बे, रंगीला, वन्देमातरम (अल्बम), और तक्षक जैसी फ़िल्में की, इस्माईल दरबार के लिए उन्होंने हम दिल दे चुके सनम और देवदास के गीत लिखे, पर ये प्रतिभाशाली गीतकार लम्बे समय तक सक्रिय न रह सका। वहीँ दूसरी तरफ नदीम श्रवण और आनन्द मिलिन्द के लिए समीर ने ढेरों गीत लिखे (याद करें दिल, आशिकी, साजन आदि)। पर उनका दौर खत्म होते-होते लगा कि वो भी कहीं गुमनामी में खो जाएँगे, पर समीर ने कुछ कुछ होता है से अपनी वापसी की। आजकल वो समीर अनजान के नाम से लिख रहे हैं। नयी सदी में भाषा बदली है और गीतों का स्वरूप भी पूरी तरह नया हो चुका है। आज के दौर में प्रसून जोशी (रंग दे बसंती, फ़ना, तारे ज़मीन पर, दिल्ली ६), इरशाद कामिल (रोंकस्टार, जब वी मेट), पियूष मिश्रा (आजा नचले, गुलाल), सैयद कादरी (लाइफ इन ए मेट्रो), जयदीप साहनी (चक दे इण्डिया, रब ने बना दी जोड़ी), स्वानन्द किरकिरे (परिणीता, ३ इडियट्स) और अमिताभ भट्टाचार्य (देव डी, उड़ान, अग्निपथ) जैसे गीतकारों के चलते संगीत में फिर से माधुर्य लौट आया है। बीते ८० वर्षों में फ़िल्मी गीतों में एक लम्बा सफर तय किया है। फिल्मों में गीत लिखने के लिए गीतकार को बहुत लचीला होना पड़ेगा। उसे शब्दों की ध्वनियों की समझ रखनी होगी, धुन और मीटर की पकड़ सशक्त होकर थामनी होगी, कम और सरल शब्दों में बहुत कुछ कहने का हुनर भी उसके लिए लाजमी होगा। चूँकि गीत एक टीम वर्क है, उसे संगीतकार और गायक-गायिका के साथ संगत कर गीत को सजाना सँवारना भी होगा। इन्हीं खूबियों के चलते फिल्म में गीतकार को खास महत्त्व दिया जाता है। यह एक तकनीकी काम है मगर किसी संस्था में इसे सिखाया नहीं जा सकता। उभरते हुए गीतकारों के लिए अब तक बने ढेरों गीतों का विशाल खज़ाना मौजूद है, सन्दर्भ के लिए। बस बदलते समय के हिसाब से खुद को ढालते चले जाना है। जब तक हमारे देश में फ़िल्में बनेगीं, उनमें संगीत एक अहम घटक रहेगा, गीतकारों के लिए चुनौतियाँ यूँ ही कायम रहेंगी। नए गीतकारों को नए शब्द गढ़ने ही होंगें, ज़िन्दगी, रिश्ते, प्यार और समाज की कहानियों को दोहराने के लिए।

1 टिप्पणी:

My Spicy Stories ने कहा…

Spicy and Interesting Story Shared by You. Thank You For Sharing.
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