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29.6.12

मैंने देखी पहली फिल्म


चार साल का था जब दिल्ली आया। यहाँ पापा के पास एक रेडियो हुआ करता था, जर्मन मेड, जिसने मेरा परिचय फिल्म संगीत से करवाया। उन दिनों घर में टी.वी. नहीं था। वास्तव में पूरे मोहल्ले में ही कुछ गिने-चुने घरों में ही ये राजसी ठाठ उपलब्ध था और दूरदर्शन से मात्र रविवार को प्रसारित होने वाली फिल्मों और बुधवार शाम को टेलीकास्ट होने वाले चित्रगीत को देखने के लिए इन घरों में पूरे मोहल्ले के बच्चे जमा हो जाया करते थे। पर पापा ने हमें इज़ाज़त नहीं दी थी, किसी के घर जाने की, तो मन मसोस कर रह जाते थे। हाँ, बायस्कोप वाला आता था तो एक या दो पैसे देकर तस्वीरें देखने की अनुमति अवश्य मिल जाती थी।

उन दिनों हम दिल्ली में इण्डियागेट के पास मानसिंह रोड के सरकारी आवास में रहते थे। जहाँ से “स्टेडियम” और “रेसकोर्स” थियेटर घर से नजदीक थे। वास्तव में ये आम आदमियों की सुविधा के लिए बने सस्ते थियेटर थे जहाँ बड़े सिनेमाघरों से निकलने के बाद फिल्म लगती थी और बेहद कम दामों में टिकट मिलते ये। वर्ष १९७८ की बात है, “शोले” नाम की ‘मील का पत्थर’ फिल्म, जो करीब दो साल पहले रिलीज हुई होगी। बड़े-बड़े थियटरों में धूम मचाने के बाद आखिरकार स्टेडियम में प्रदर्शित हुई और पापा मुझे और मम्मी को बड़े शान से ये फिल्म दिखाने ले गए। मम्मी बताती है कि मैं जो कभी पाँच मिनट भी एक जगह चैन से नहीं बैठता था, पूरी तीन-साढ़े तीन घण्टे की फिल्म के दौरान एकटक स्क्रीन को देखता रहा और जरा भी नहीं हिला। वैसे तो चार साल का बच्चा कहाँ सब कुछ अच्छे से समझ पाता होगा। पर मुझे याद है, करीब 10 साल बाद मैंने ये फिल्म दुबारा वी.सी.आर. पर देखी और मुझे कोई भी दृश्य ऐसा नहीं लगा जैसे पहली बार देख रहा हूँ। कहने का तात्पर्य ये है कि “शोले” दृश्य दर दृश्य, संवाद दर संवाद मेरे नन्हें हृदय में समां गई और मुझे इल्म भी नहीं हुआ।
अपने माता-पिता के साथ बालक सजीव 

कहते हैं कि बचपन में देखी तस्वीरें जो आपके जेहन में बस जाए, उनसे आपके भविष्य की संवेदनाएँ प्रतिबिम्बित होती रहती है। हो सकता है कि कहीं न कहीं जय और वीरू की दोस्ती ने मुझे दोस्ती का महत्व समझाया हो (आज भी मैं अपने बचपन के सभी यारों के सम्पर्क में हूँ), कटे हाथों वाले ठाकुर के जीवट ने मुझे मेरी शारीरिक अक्षमताओं पर विजय पाने की राह दिखाई हो, गब्बर सिंह के बुरे अंजाम ने अच्छे-बुरे का फर्क समझाया हो या फिर खामोश विधवा बनी ठाकुर की बहु ने मुझे जीवन का एक अनदेखा पहलू दिखाया हो, कह नहीं सकता कि किन रूपों में इस फिल्म ने मेरे अन्तर्मन को छुआ होगा, पर यकीनन अपनी देखी इस पहली फिल्म का मुझ पर गहरा असर हुआ है, इस बात से इनकार नहीं कर सकता।

मम्मी बताती है कि फिल्म देखने के बाद जब हम घर आये तो मैं बहुत उदास लग रहा था और जय की मौत के बारे में सोचकर रोना आ रहा था। मम्मी के पूछने पर मैंने बताया कि कितना अच्छा आदमी था, बेचारा मर गया। यह सुन कर पापा-मम्मी खूब हँसे थे। तब मुझे पापा ने समझाया कि ये मात्र फिल्म थी और जय के किरदार को निभाने वाले अमिताभ बच्चन जिन्दा हैं, पर मुझे यकीन नहीं हुआ। जब मैं बार-बार मनाने पर भी नहीं माना तो कुछ एक-दो हफ्ते के बाद पापा मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म “दोस्ताना” दिखाने ले गए, जो मेरे जीवन की दूसरी देखी हुई फिल्म बनी, ताकि मुझे अमिताभ को देख कर तसल्ली हो जाए कि वो मरे नहीं, जिंदा हैं।

स्टेडियम और रेसकोर्स के इन थियटरों में मैंने बहुत सी फ़िल्में देखी और सच कहूँ तो एक-एक फिल्म दिलो-जेहन में आज भी बसी हुई है। ‘शोले’ फिल्म से जो सिलसिला शुरू हुआ वह राम बलराम, कातिलों के कातिल, याराना, लव स्टोरी, नौकर बीवी का, तीसरी आँख, प्रेमरोग से लेकर नगीना तक जारी रहा। स्टेडियम और रेसकोर्स का साथ टूटा, “क़यामत से क़यामत तक” पर आकर, जब पहली बार पापा-मम्मी से अलग, दोस्तों के साथ फिल्म देखी, कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा पर। इसके बाद कभी स्टेडियम या रेसकोर्स पर जाना नहीं हुआ। मुझे पता नहीं ये सिनेमाघर अब मौजूद है या नहीं। जहाँ तक मेरा ख़याल है चूँकि ये दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण और महँगे इलाकों में बसे थे, इन्हें बंद करके सरकारी दफ्तरों में बदल दिया गया है। पर इन सिनेमाघरों से जुडी यादों को अपनी देखी पहली फिल्म “शोले” के बहाने आप सब के साथ बांटना आज भी सुखद लग रहा है। दिल्ली के पुराने चार्म को सलाम।

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