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11.3.12

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - विश्व दीपक तन्हा

मैं आज तक फिल्मी गीतों की समीक्षा करता आया हूँ, लेकिन पहली मर्तबा किसी कविता-संग्रह की समीक्षा करने का मौका हासिल हुआ है। यह मौका दो कारणों से मेरे दिल के करीब है.. एक तो इसलिए कि ये सारी कविताएँ नए दौर की कविताएं है, जो आज के हालात का बखूबी चित्रण करती है और दूजा ये कि इन कविताओं के रचयिता मेरे बड़े हीं प्यारे कवि-मित्र हैं। सजीव सारथी जी का नाम अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा के प्रेमियों के लिए नया नहीं है.. बस इस बार नया यह हुआ है कि सजीव जी अंतर्जाल से उतरकर पन्नों पर आ गए हैं। "एक पल की उम्र लेकर" इनका पहला कविता-संग्रह है। मैं इनके कविता-संग्रह की समीक्षा करूँ, इससे पहले पाठकों को यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मेरी समीक्षा पर इनकी मित्रता का कॊई कुप्रभाव न होगा :) .. मेरी समीक्षा तटस्थ हीं रहेगी..


सजीव जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इनकी लिखी हर एक बात अपनी बात-सी लगती है,

हर खुशी अपनी हीं किसी खुशी की याद दिलाती है, हर ग़म अपने हीं बीते हुए किसी ग़म का बोध कराता है। ये हर एक अनुभव को अपने अनुभव से पकड़ते हैं। ये जिस आसानी से हँसी लुटाते हैं, उतनी हीं आसानी से आँसुओं की भी बौछार कर डालते हैं। ११० पन्नों के इस कविता-संग्रह में हर तरह के भाव हैं। इनके यहाँ कथ्य का दुहराव नहीं है। ये उन कवियों की तरह नहीं हैं, जिन्हें अगर एक बार ज़िंदगी में बुरे लम्हे नसीब हुए तो उनका लेखन हीं निराशावाद की तरह मुड़ जाता है.. फिर हर एक पंक्ति में उसी दु:ख के दर्शन होते हैं। सजीव जी दु:ख और सुख को तराजू के दोनों पलड़ों पर बराबर का स्थान देते हैं, इसलिए इनकी कविताओं को पढते वक़्त पाठक कोई एक मनोभाव बरकरार नहीं रख सकता। एक पाठक को महज कुछ हीं कविताओं में जीवन के सारे उतार-चढाव दिख जाएँगे।

"साहिल की रेत" कविता में जब कवि अपने पुराने सुनहरे दिनों को याद करता है तो अनायास हीं उसे इस बात का बोध हो जाता है कि जो भी लम्हे हमने गंवा दिए वही काफी थे, जीने के लिए। उन्हें ठुकराकर भी प्यास मिटी तो नहीं।

उन नन्हीं
पगडंडियों से चलकर हम
चौड़ी सड़कों पर आ गए
हवाओं से भी तेज़
हवाओं से भी परे
भागते हीं रहे
फिर भी
प्यासे हीं रहे...

किसी पुराने प्यार, किसी पुरानी पहचान को भुलाना आसान नहीं होता। वह इंसान भले हीं हमारी ज़िंदगी से चला जाए, लेकिन उसकी यादें परछाई बनकर हमारे आस-पास मौजूद रहती है। कुछ ऐसे हीं ख़्यालात "बहुत देर तक" कविता में उभरकर सामने आए हैं:

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढे रहा मैं उसकी परछाई को..
बड़े शहरों में छोटे शहरों या गाँवों से मजूदरों का पलायन कोई नई बात नहीं है। यह बात भी किसी से छुपी नहीं कि इन लोगों के साथ कैसा सलूक किया जाता है। ये भले हीं उनके समाज में घुल जाना चाहें, लेकिन बड़े लोगों का समाज इन्हें गैर या प्रवासी हीं बने रहने देना चाहता है। ऐसे प्रवासियों का दर्द और खुद पर गुमान सजीव जी की इस एक पंक्ति से हीं स्पष्ट हो जाता है। कविता है "किसका शहर":


उन सर्द रातों में
जब सो रहे थे तुम
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क..
गाँवों से मजदूरों और किसानों का पलायन केवल केरल तक सीमित नहीं है। यह अलग बात है कि सजीव जी ने केरल के गाँवों की स्थिति अपनी आँखों से देखी है। इसलिए इन्होंने "विलुप्त होते किसान" में हाशिये पर पड़ी इन प्रजातियों पर गहरी टिप्पणी कर डाली है:

सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ..

ज़िंदगी से छोटे-छोटे लम्हे बटोर लाना सजीव जी की आदत-सी है शायद। तभी तो इन्होंने किसी की उम्र में "नौ महीने" जोड़ दिए तब हमें मालूम हुआ कि उम्र कहीं छोटी पड़ रही थी। ये नौ महीने जितना एक लडके के लिए मायन रखते हैं, उतना हीं एक लड़की के लिए.. या फिर कहिए कि लड़की के लिए ज्यादा... क्योंकि लड़कियों के लिए वे नौ महीने गुजारने ज्यादा मुश्किल होते हैं... मौत कब गले पड़ जाए कोई नहीं जानता... इस कविता के लिए मैं सजीव जी को विशेष दाद दूँगा।

शिनाख्त उनकी होती है, जिन्हे जीने का हक़ होता है और जो ज़िंदगी को अपने बूते पर जीता है। वह तो बे-शिनाख्त हीं मारा जाएगा, जो रोड़े की तरह पाँव के ठोकर खाता हुआ इधर-उधर फेंका जा रहा हो। दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में बिहार के पिछड़े गाँव से आने वाले किसी मजदूर (हाँ, वही पलायन की दु:ख भरी दास्तां) की किसने जेब मारी, किसने किडनी और किसने ज़िंदगी.. इसकी कौन खबर लेता है। ये मजदूर और इनके परिवार वाले तो यही मानते हैं कि स्वर्ग के दर्शन हो रहे हैं, लेकिन जो होता है उसका जीता-जागता ब्योरा सजीव जी की "बे-शिनाख्त" कविता में है। सच हीं लिखा है आपने:

और किसी को कानों-कान
खबर भी नहीं लगती..

प्यार... बड़ा हीं प्यारा अनुभव है। इसमें जीत क्या और हार क्या... प्यार को अगर शतरंज की बाजी की तरह समझा जाए तो सजीव जी की "शह और मात" कविता हर चाल के साथ फिट बैठती है और फिर... इन पंक्तियों के क्या कहने:

मैंने खुद को विजेता-सा पाया
जब तुमने मुस्कुराते होठों से कहा -
यह शह है और ये मात।

दंगों में बस इंसान हीं ज़ाया नहीं होते.. इंसान के द्वारा गढे गए शब्द भी अपना अर्थ खो देते हैं। दोस्ती, प्यार, विश्वास, इंसानियत.. ऐसे न जाने कितने शब्दों की मौत हो आती है। "शब्द" कविता में कवि इन्हीं आवारा शब्दों की शिकायत करते हुए कहता है कि:

शब्द
जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे
कुछ दिन और ज़िंदा रह जाते-
अगर जो खूँटों से बँधे रहते।

कश्मीर.. यह क्या था, इसे क्या होना था.. लेकिन यह क्या होकर रह गया है.. इस सुलगते शहर में अब दर्द भी सुलगते हैं। आँखों में रोशनी की जगह गोलियों के सुराख ... आह! इस दर्द को महसुस करना हो तो "सुलगता दर्द-कश्मीर" एक बार ज़रूर पढ लें।

कहा था ना कि दर्द और प्यार.. खुशी और ग़म.. हर तरह के अनुभव सजीव जी के इस संग्रह में मौजूद है। तो लीजिए.. अगली हीं कविता में "हृदय" की कोमलता से रूबरू हो आईये। क्या खूब कहा है कवि ने:

क्या करूँ, मुश्किल है लेकिन
खुद से हीं बचकर गुजरना।

"एक पल की उम्र लेकर" कविता-संग्रह में न सिर्फ़ उन्मुक्त छंद हैं, बल्कि कई सारी ग़ज़लें भी हैं। उन्हीं में से एक है "रूठे-रूठे से हबीब"। इस ग़ज़ल के एक शेर में कवि इस बात का खुलासा कर रहा है कि आजकल प्रेम परवान क्यों नहीं चढता?

कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईंट-ईंट में अहम के किले हैं कुछ..
दूसरी ग़ज़ल है "भूल-चूक"। दंगे-फ़सादों में जब भी किसी इंसान की जान ली जाती है तो उस समय एक इंसान नहीं एक धर्म निशाने पर होता है और निशाना भी एक धर्म की ओर से हीं लगाया जाता है। उस वक़्त कोई गीता की शपथ लेता है तो कोई क़ुरआन के कलमें पढता है। इसी लिए कवि ने कहा है कि:

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रूसवा हुई है फिर कोई किताब शायद..

मंज़िल उन्हीं को हासिल हुई है, जिन्होंने रास्तों की खोज़ की है। कुएँ के मेढक की तरह सिमटकर बैठे रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता। कभी न कभी अनजान दिशाओं की ओर बढना हीं होता है। कभी न कभी नाखुदा से ज्यादा खुद पर भरोसा करना होता है। सजीव जी अपनी इन बातों को रखने में पूरी तरह से सफल हुए हैं:

आओ वक़्त के पंखों को परवाज़ दें,
एक नयी उड़ान दें
अनजान दिशाओं की ओर।

सदियों से इंसान के सामने सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न यही रहा है कि वह आया कहाँ से है। आज तक इसका उत्तर कोई जान नहीं पाया है। फिर भी वक़्त-बेवक़्त हर कहीं यह प्रश्न किसी न किसी रूप में सामने आता हीं रहता है। "कफ़स" कविता में यह प्रश्न कुछ इस तरह उभर कर आया है:

आसमान पे उड़ने वाले परिंदे की
परवाज़ जो देखी तो सोचा कि-
मेरी रूह पर
ये जिस्म का कफ़स क्यों है?

एक कवि किस हद तक सोच सकता है यह जानना हो तो सजीव जी की "सूखा" कविता पढें जहाँ ये कहते हैं कि:

मेरे भीतर-
एक सूखा आकाश है।
"सिगरेट" न सिर्फ़ जिगर को खोखला करता है, बल्कि ज़िंदगी जीने के जज्बे को भी मार डालता है। इंसान अपने ग़म मिटाने के लिए सिगरेट की शरण ले तो लेता है, लेकिन जब उसे अपने अंतिम दिन सामने नज़र आते हैं तब जाकर शायद उसे इस बात का पता चलता है कि:

मगर जब देखता हूँ अगले हीं पल
ऐश-ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
ज़िंदगी -
इतनी बुरी भी नहीं है शायद।

इस संग्रह में और भी कई सारी अच्छी कविताएँ, ग़ज़लें एवं क्षणिकाएँ हैं, लेकिन सब का ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। इसलिए मैंने उनमें से अपनी पसंद की पंक्तियाँ चुनकर उनकी समीक्षा की है। हो सकता है कि पाठक को या फिर दूसरे किसी समीक्षक को कोई और पंक्तियाँ ज्यादा पसंद हों। अपनी-अपनी राय है.. अपना-अपना मंतव्य है। अगर पूरे संग्रह की एक बार बात की जाए तो हर कविता का अंत बेहतरीन है। इस मामले में मैं सजीव जी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ कि वे जानते हैं कि कौन-से शब्द और कौन-से वाक्य कहाँ रखे जाने हैं।

चूँकि शुरूआत में मैंने कहा था कि मेरी समीक्षा तटस्थ होगी, तो मैंने संग्रह में दो-चार ऐसी भी पंक्तियाँ ढूँढ निकाली हैं, जहाँ या तो मैं थोड़ा दिग्भ्रमित हुआ या फिर मुझे लगा कि शिल्प थोड़ा ठीक किया जा सकता था।

उदाहरण के लिए "पराजित हूँ मैं" कविता की इन्हीं पंक्तियों को लें:

मेरा रथ हीं तो दलदल में
फँसाया था तुमने
मेरा वध हीं तो छल से
कराया था तुमने।

मेरे हिसाब से अगर "हीं" को "रथ" और "वध" के पहले रखते तो अर्थ ज्यादा साफ़ होता। तब यह अर्थ निकलता कि "मेरा" हीं रथ ना कि "किसी" और का। "हीं" को बाद में रखने से वाक्य का जोर "रथ" और "वध" पर चला गया है, जो कि "मेरा’ पर होना चाहिए था।

अगली कविता है "संवेदनाओं का बाँध"। इस कविता के अंतिम छंद को मैं सही से समझ नहीं पा रहा हूँ।

मन की हर अभिव्यक्ति को
शब्दों में ढल जाने दो
कोरे हैं ये रूप इन्हें
कोरे हीं रह जाने दो।

यहाँ शुरू की दो पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि मेरी हर अभिव्यक्ति को आवाज़ मिले, शब्द मिले। लेकिन अंतिम दो पंक्तियों में "कोरे" को "कोरे" रह जाने दो.. कहकर "अभिव्यक्ति" को "अभिव्यक्ति" हीं रहने देने की बात हो रही है या फिर कुछ और? मैं चाहूँगा कि सजीव जी मेरी इस शंका का समाधान करें।

"आलोचना" वाली श्रंखला की अंतिम कविता है "आज़ादी"। इस कविता की एक पंक्ति में कवि ने "कारी" शब्द का इस्तेमाल किया है। मेरे हिसाब से कारी "काली" का हीं देशज रूप है। यह मानें तो पंक्ति कुछ यूँ बनती है:

उफ़्फ़ ये अँधेरा कितना काली है..

अब यहाँ "लिंग-दोष" आ गया है, क्योंकि अंधेरा पुल्लिंग है। अँधेरा की जगह अगर तीरगी को रखें तो यह दोष जाता रहेगा..

बड़ी हीं मेहनत-मशक्कत के बाद मैं इस कविता-संग्रह में बस ये तीन कमियाँ (शायद) निकाल पाया हूँ। बाकी तो आपने ऊपर पढ हीं लिया है।

मैं अपनी इस समीक्षा को विराम दूँ, उससे पहले सजीव सारथी जी को इस कविता-संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ देना चाहूँगा और दुआ करूँगा कि उनके ऐसे और भी कई सारे संग्रह निकलें।

एक बात और... इस पुस्तक का जब भी दूसरा संस्करण निकले या फिर आपका कोई नया पुस्तक आए, तो इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि उर्दू के शब्द उर्दू जैसे हीं दिखें यानि कि नुख़्ते को नज़र-अंदाज़ न किया जाए।


विश्व दीपक
कवि, गीतकार और सोफ्टवेयर इंजीनियर

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