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22.11.12

विश्वास का गर्भपात

भ्रमित, शंकित सा मन,
चितित, कुंठित सा कुछ,
माथे पे शिकन की काली लकीरें पड़ती है,
वहम की परछाईयाँ पांव जोड़े चलती है,
विस्मृत से हो जाते हैं समय के सन्दर्भ सब,
दलीलों को काटती दलीलें,
कुछ और भी नुकीली हो जाती है जब,
निर्णय किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाता,
और अनिर्णय ही निर्मम फैसले सुनाता है तब,

प्रसव पीड़ा से भी अधिक असहनीय,
था संदेह का अग्निविष पीना,
कटीले शब्दों की चोट से,
दम तोड़ता एक रिश्ता,
लहूलुहान हो गयी थी कोख,
जब गर्भ में ही हो गया था,
विश्वास का गर्भपात....  

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